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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

हिंदी साहित्य को वैश्विक साहित्य कहा जा सकता है?

हिंदी वर्तमान समय में केवल शिक्षा एवं साहित्य की भाषा की परिधि तक सीमित नहीं रह गई है। भूमंडलीकरण अथवा वैश्वीकरण के दौर में हिंदी वैश्विक परिदृश्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना रही है। हिंदी भाषा के निरंतर होते विस्तारीकरण के पीछे कुछ प्रमुख बातें सामने आती हैं- यह विदेशी भाषाओं के शब्दों को स्वयं में आत्मसात करने की क्षमता रखती है अर्थात् हिंदी भाषा का लचीलापन उसके विकास में सहयोगी सिद्ध हुआ है। हिंदी भाषा को बोलने-समझने वाले व्यक्तियों का संख्या बल काफी अधिक है, जिस कारण यह संपर्क भाषा के तौर पर आसानी से स्थापित हो जाती है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने भी हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया है। बाजार के दृष्टिकोण से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विज्ञापनों और बाजार की भाषा को समझने के लिए हिंदी की ओर बढ़ रही हैं, हालांकि यह एक लाभ केंद्रित दृष्टिकोण ही है परंतु इससे भाषायी प्रसार हो रहा है इसे नकारा नहीं जा सकता।

वैश्विक फलक पर हिंदी तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा का स्थान प्राप्त कर चुकी है। कोई भी भाषा अभिव्यक्ति और संप्रेषण मौखिक रुप के साथ-साथ लिखित साहित्य के रूप में भी करती है। हिंदी के वैश्विक स्तर पर स्थापित होने के पीछे इसमें रचित उत्तम साहित्य का बड़ा योगदान रहा है। अनुवाद की बढ़ती गुणवत्ता से हिंदी की स्थिति और बेहतर होती जा रही है। हिंदी साहित्य को वैश्विक साहित्य की कोटि में पहुँचाने में बहुत बड़ा योगदान प्रवासी भारतीयों का भी रहा है। प्रवासी भारतीय अपने साथ अपनी भाषा, संस्कृति आचार-विचारों को भी लेकर गए और अपनी भाषा में ही साहित्य रचना कर इसे और समृद्ध बनाया है। थाईलैंड, हांगकांग, फिजी, सूरीनाम, मॉरिशस इत्यादि ऐसे देश हैं, जहाँ हिंदी भाषी प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं। विश्व के डेढ़ सौ से भी अधिक देशों में हिंदी के शिक्षण के लिए केंद्र खोले गए हैं जिस कारण हिंदी की व्यापकता दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है।

हिंदी साहित्य की भक्तिकालीन अनुपम कृति ‘रामचरितमानस’ की लोकप्रियता विश्वभर में फैली हुई है। दुनिया में रामायण के लगभग तीन सौ से ज्यादा टेक्स्ट मौजूद हैं। बर्मा में रामकथा पर आधारित ‘रामवत्थु’, लाओस में ‘रामजातक’(फ्रलक- फ्रलाम), कम्पूचिया में ‘रामकेर्ति’, इंडोनेशिया में ‘रामायण काकावीन’ मलेशिया में ‘हिकायत सेरीराम’ के अतिरिक्त चीन और जापान में रामकथा मौजूद है। चीन में ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’ तथा जापान में ‘होबुत्सुशू’ नाम से रामकथा को संकलित किया गया है। ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ के लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसीदास को ‘बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक’ कहा है।

हिंदी साहित्य की भक्तिकालीन शाखा का बहुत से विदेशी विद्वानों ने गहन अध्ययन किया है। आदिकालीन साहित्य में ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रमाणिकता और प्रमाणिकता को लेकर कर्नल टाड और डॉक्टर बूल्हर ने गहन अध्ययन किया। जगनिक कृत ‘आल्हाखंड’ को प्रकाशित करवाने का श्रेय ‘चार्ल्स इलियट’ को जाता है। इन उदाहरणों को उद्धृत करने का उद्देश्य यह बताना रहा है कि हिंदी साहित्य के प्रति विदेशी विद्वानों की रुचि बहुत पुराने समय से चली आ रही है। इन्हीं विद्वानों के माध्यम से हिंदी साहित्य की कृतियाँ अनुवादित होकर विश्व के कोने-कोने तक अपनी पहुँच बना रही हैं।

हिंदी साहित्य को दुनिया भर में विस्तारित करने का श्रेय उन बहुत सी संस्थाओं को भी जाता है जो विदेशी भूमि पर रहकर भी अपनी भाषा और संस्कृति को आज भी बनाए हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं में प्रमुख हैं- मॉरिशस हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय, हिंदी सोसायटी (सिंगापुर), हिंदी परिषद (नीदरलैंड्स), हिंदी संगठन (मॉरिशस)। विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रवासी साहित्य रचा गया, जो दुनिया के अलग-अलग देशों में निवास करते हुए भी भाषायी एकात्म बनाए हुए हैं। उषा प्रियंवदा (अमेरिका), अभिमन्यु अनंत (मॉरीशस), तेजेन्द्र शर्मा (इंग्लैंड), उषाराजे (ब्रिटेन) आदि कुछ प्रमुख प्रवासी साहित्यकार हैं, जो कि हिन्दी सेवी बनकर रचनाएँ कर रहे हैं तथा हिंदी भाषा के साहित्य को वैश्विक साहित्य बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने निबंध ‘हिंदी और हिन्दुस्तानी’ में हिंदी भाषा के प्रति अपना प्रेम प्रकट करते हुए उसकी विशेषता बताते हैं कि “यह वही भाषा है जिसमें सारे उत्तर भारत के बीच चंद और जगनिक ने वीरता की उमंग उठाई, कबीर, सूर और तुलसी ने भक्ति की धारा बहाई, बिहारी, देव, पद्माकर ने शृंगार रस की वर्षा की, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र ने आधुनिक युग का आभास दिया और आज आप व्यापक दृष्टि फैलाकर संपूर्ण मानव जगत के मेल में लानेवाली भावनाएँ भर रहे हैं । हजारों वर्ष से यह दीर्घ परंपरा अखंड चली आ रही है ।”

शुरुआत में हिंदी भाषा के जिस लचीलेपन की बात की गई थी, राष्ट्रभाषा बनने से पूर्व ही प्रेमचंद हिंदी द्वारा विदेशी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की ओर ध्यान देते हुए कहते हैं कि पहले-पहल तो यह भाषा कुछ वक्त के लिए खटकेगी लेकिन राष्ट्रभाषा बनने हेतु “ यह काम हिंदुस्तानी भाषा का होगा कि जहाँ तक हो सके, निरर्थक कैदों से आजाद हों|” इन्हीं निरर्थक कैदों से आजाद होते हुए आज हिंदी भाषा में डच, ईरानी, अंग्रेजी, पश्तो, तुर्की, रूसी, जापानी, पुर्तगाली, चीनी आदि भाषाओं के शब्द आत्मसात कर लिए गए हैं। भाषा और साहित्य की आत्मसात करने की इसी क्षमता की ओर इशारा करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “भाषा या साहित्य के विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करने का अभिप्राय यह नहीं है कि उसमें बाहर से लाए हुए नए शब्द और नई-नई वस्तुएँ न मिलें, उसमें नए-नए शब्द भी बराबर मिलते जाते हैं और नए-नए अर्थों या वस्तुओं की योजना भी होती जाती है, पर इस मात्रा में और इस ढब से कि उसका स्वरूप अपनी विशिष्टता बनाए रहता है। हम यह बराबर कह सकते हैं कि वह इस देश का, इस जाति का और इस भाषा का साहित्य है। गंगा एक क्षीण धारा के रूप में गंगोत्री से चलती है, मार्ग में न जाने कितने नाले, न जाने कितनी नदियां उसमें मिलती जाती हैं, पर सागर-संगम तक वह ‘गंगा’ ही कहलाती है, उसका ‘गंगापन’ बना रहता है ।”

हिंदी साहित्य को वैश्विक साहित्य की ओर ले जाने का कार्य जिस विद्वान ने सर्वप्रथम किया था, उनका नाम था फादर कामिल बुल्के। कामिल बुल्के ने सन् 1950 में रामकथा पर पीएच.डी की डिग्री प्राप्त की। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश’ है । इन्होंने तुलसी साहित्य को समझने के लिए संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाएँ सीखीं। उन्होंने जीवनपर्यन्त हिंदी का अध्ययन-अध्यापन किया । उन्हीं के अथक प्रयासों का फल आज निकलकर आ रहा है कि आज हिंदी बारह से अधिक देशों में बहुसंख्यक समाज की मुख्य भाषा है। सिंगापुर, यमन, युगांडा, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में हिंदी भाषी भारतीयों की संख्या दो करोड़ से अधिक है। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य और निकलकर सामने आता है कि “फिजी, गुआना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड तथा अरब अमीरात इन छह देशों में हिंदी को अल्पसंख्यक भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा प्राप्त है।”[iv] हिंदी भाषा को और अधिक बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्ष 2006 से 10 जनवरी को दुनियाभर में विश्व हिंदी दिवस मनाया जाने लगा है।

हिंदी भाषा के प्रसार के साथ ही हिंदी साहित्य का प्रसार होगा। भाषा और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध है। ये एक दूसरे के पूरक ही कहे जा सकते हैं। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास जारी हैं। वर्ष 2018 में श्रीमती सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी। इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जाए । हाल ही में लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘Tomb of sand’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है, इसने भारतीय भाषा साहित्य को फिर से सुर्खियों में ला दिया था।

हिंदी साहित्य को वैश्विक साहित्य बनने के लिए बहुत सी चुनौतियों का सामना करना होगा। आवश्यकता है कि हिंदी की वास्तविक स्थिति को गंभीरता से समझा जाए, लक्ष्य प्राप्ति के लिए सार्थक योजनाएँ बनाकर उन्हें कार्यान्वित किया जाए। हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। अनुवाद इसमें मुख्य रूप से सहयोगी होगा। हिंदी भाषा एवं साहित्य को विश्वभाषा एवं वैश्विक साहित्य बनाने के लिए सम्मिलित होकर गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता है।

  वर्षा चौधरी  

लेखिका वर्षा चौधरी दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक, जामिया मिल्लिया इस्लामिया से परास्नातक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से एम. फिल. और वर्तमान में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पीएचडी (हिंदी साहित्य) में नामांकित हैं।

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